असम: राष्ट्रीय दलों के बीच खत्म हो रही क्षेत्रीय पार्टियां

नमन सत्य ब्यूरो
असम में चुनावी शोरगुल के बीच तमाम छोटे-बड़े दल जीतने के लिए अपना-अपना समीकरण लगा रहे है। लेकिन इन सबके बीच असम की तमाम छोटी क्षेत्रीय पार्टियां राज्य में हासिए की स्थिति पर पहुंच चुकी है। क्योंकि यहां अब पिछले दो दशक से राष्ट्रीय पार्टियों का दबदबा हो चुका है, लेकिन ऐसा नहीं है कि यहां क्षेत्रीय पार्टियों का हाल हमेशा से ही ऐसा रहा हो, एक वक्त हुआ करता था जब राज्य में क्षेत्रीय पार्टी की सत्ता हुआ करती थी। लेकिन बड़े राजनीतिक दलों के असम पहुंचने से अब छोटी और क्षेत्रीय पार्टियों को भारी नुकसान झेलना पड़ रहा है। या यूं कहें कि अब इन पार्टियों का वजूद ही खत्म होने को है।

क्यों बढ़ रही है असम की अहमियत, पढ़े
असम को पूर्वोत्तर राज्यों का दरवाजा भी कहा जाता है. अगर आपको पूर्वोत्तर की खूबसूरती देखनी है तो आपको असम से होकर ही गुजरना होगा. इसीलिए असम का राजनीतिक महत्व भी काफी बढ़ जाता है. यही वजह है कि असम की सत्ता पर काबिज होने के लिए बीजेपी औऱ कांग्रेस दोनों दल जी तोड़ मेहनत कर रहे हैं। इसके साथ ही असम की अहमियत को इस बात से भी समझा जा सकता हैं कि साल 2012 तक इन सभी सातो राज्यों में सिर्फ असम ही ऐसा राज्य था, जिसके पास अपना हाईकोर्ट हुआ करता था. बाकी सभी राज्यों की हाईकोर्ट की पीठ गुवाहाटी हाईकोर्ट में हुआ करती थी. हालांकि जैसे जैसे समय बदलता गया उसके बाद में कुछ राज्यों में अपना हाईकोर्ट बनाने के लिए संसद में बिल पारित किया।

असम का राजनीतिक महत्व इसीलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि ये राज्य बांग्लादेश की सीमा से सटा हुआ है। इसलिए वहां बांग्लादेश से भागकर आए लोग ज्यादा बस गए हैं। वहीं अगर 70 के दशक की बात करें तो जितने भी लोग बांग्लादेश से भागकर भारत आए थे। उनमें से ज्यादातर लोग असम में ही बस गए थे। हालांकि इसकी एक बड़ी आबादी पश्चिम बंगाल में भी बसी हुई है। ऐसे में 70 के दशक में जब बांग्लादेश से आए लोग असम में बसने लगे थे। तब असमिया लोगों ने इनका भारी विरोध किया था क्योंकि असमिया लोगों को. डर था कि कहीं बांग्लादेशियो के यहां आने से असमिया संस्कृति ना खत्म हो जाए। इसलिए उस वक्त असमिया लोगों ने एकजुट होकर इनका विरोध किया था।

उसी जनआंदोलन के दौरान कई क्षेत्रीय पार्टियों मौके की नजाकत को समझते हुए अपनी अपनी पार्टियों का गठन कर लिया था। इसलिए असम में 1985 से लेकर 2001 तक के काल को स्वर्णीम काल कहा जाता है। आपको बता दें कि इसी जनांदोलन के दौरान ही असम गण परिषद का भी गठन हुआ था, जिसने आगे चलकर असम में 1986 में अपनी सरकार बना ली. ये संगठन मूल सूप से युवा छात्रों की था, जिन्हें ना तो सरकार चलाने का कोई अनुभव था और ना ही राजनीति की समझ। जिसके चलते असम गण परिषद ने सरकार के कुछ समय बाद ही इन्होंने उस वक्त की केंद्र में राजीव गांधी सरकार के साथ समझौता कर लिया था। राजीव गांधी सरकार से समझौता करने का फायदा ये मिला था कि शुरुआती के पांच साल तो ठीक-ठाक चलें, लेकिन दूसरे दौर के अंत तक आते आते केंद्र में मौजूद चेंद्रशेखर सरकार ने असम की सरकार को बर्खास्त कर दिया था और वहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया. जानकारों का कहना है कि जितनी तेजी से ये क्षेत्रीय दल उभरे थे उतनी ही तेजी से इनका पतन भी होने लगा था।
छोटी पार्टियों का होता था भयंकर दबदबा

असम में एक दौर ऐसा भी हुआ करता था जब राष्ट्रीय दल खुद को छोटा भाई और क्षेत्रीय दल को बड़ा भाई मानते थे लेकिन महज कुछ सालों में ही कांग्रेस ने अपना खोया हुआ जनाधार असम में फिर से वापस पा लिया और क्षेत्रीय दल फिर से छोटे भाई की भूमिका में आ गए, और अगले 15 सालों तक राज्य में कांग्रेस सरकार चलाने में कामयाब रही. हालांकि राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि जब 1985 में असम गण परिषद ने सरकार बनाई थी, तो उस वक़्त भी उनके पास पूर्ण बहुमत नहीं था और सरकार बनाने के लिए उन्हें गठबंधन का ही सहारा लेना पड़ा था. लेकिन 2014 के आते-आते परिषद की हालत इतनी ख़राब हो गई कि संगठन के क़द्दावर नेताओं को संगठन से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. कमोबेश यही हाल बोडोलैंड पीपुल्स फ़्रंट यानी बीपीएफ़ का भी रहा, जो कांग्रेस के साथ वर्ष 2006 से लेकर 2011 तक गठबंधन में रही. फिर 2016 के चुनावों में बीपीएफ़ ने भाजपा से गठबंधन किया और बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद की 12 की 12 सीटें उनकी पार्टी ने जीत लीं. इस बार चुनावों से ठीक पहले बीपीएफ़ के बीच मतभेद खुलकर सामने आने लगे और बीपीएफ़ ने भाजपा के साथ चलने की बजाय अपने रास्ते अलग कर लिए. इस बीच भाजपा ने बोडोलैंड के एक और क्षेत्रीय संगठन यूनाइटेड पीपुल्स पार्टी लिबरेशन यानी यूपीपील से हाथ मिलाया और मौजूदा वक़्त में बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद में भाजपा और यूपीपील के बहुमत वाला प्रशासन है. कांग्रेस के नेतृत्व वाले महागठबंधन, जिसे यहा ‘महाजोट’ कह कर संबोधित किया जाता है, उसमें वामदल, बदरुद्दीन अजमल की ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ़) भी शामिल है. गठबंधन ने असम गण परिषद को भारतीय जनता पार्टी के साथ फिर से सीटों को लेकर तोल मोल करने की गुंजाइश दे दी थी।
नागरिकता संशोधन क़ानून के बाद असम का पहला चुनाव

भारतीय जानता पार्टी के लिए भी इस बार के विधानसभा का चुनाव पिछले चुनाव से बेहद अलग हैं, क्योंकि वर्ष 2019 में आए नए नागरिकता संशोधन क़ानून को लेकर हुए विरोध के बाद असम का ये पहला चुनाव है। नए क़ानून के विरोध में हो रहे प्रदर्शनों का केंद्र असम भी रहा और इस आंदोलन ने दो अन्य दलों को भी जन्म दिया. इसमें अखिल गोगोई के नेतृत्व वाले कृषक किसान संग्राम समिति द्वारा बनाए गए रायजोर दल और ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन यानी आसू जैसे ग़ैर राजनीतिक संगठन से निकले लुरिन ज्योति गोगोई वाला असम जातीय परिषद जैसे दल शामिल हैं. हालांकि प्रदेश में क्षेत्रीय दलों की हुई दुर्दशा के लिए जिम्मेदार क्षेत्रीय दलों के नेता खुद को ही मानते हैं. जानकारों का कहना है कि इन दलों को आम लोगों का समर्थन इसीलिए मिला था क्योंकि सभी दल असम के क्षेत्रीय स्वाभीमान को लेकर काम कर रहे थे। हालांकि बाद में इन दलों ने अपना मुख्या एजेंडा ही छोड़ दिया और राष्ट्रीय दलों के एजेंडे के अनुसार ही काम करने लगे। जिससे इनकी साख अपने ही आधार वाले क्षेत्रों में कमज़ोर होने लगी, लेकिन इस बार जो चुनाव हो रहे हैं, उसमें क्षेत्रीय दलों ने अपनी खोई हुई ज़मीन को दोबारा हासिल करने की कोशिश की है, जिसकी वजह से भाजपा और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों को इनकी बात माननी पड़ रही है।